Tuesday 31 January 2017

बसंत पंचमी

भारत ही एकमात्र ऐसा सौभाग्यशाली राष्ट्र है , जहॉं प्रकृति ने ६ ऋतुयें प्रदान की है। बसंत पंचमी के दिन से शरद ऋतु की बिताई शुरु हो जाती है। चारो ओर रंग- बिरंगे फूल खिलने लगते हैं और बसंती बयार चलने लगती है। आज ही के दिन घर-घर में , हर गली-नुक्कड़ - मुहल्ले में, विद्यालयों में धूमधाम से विद्यादायिनी सरस्वती की पूजा की जाती है ।

वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !

वर दे, वीणावादिनि वर दे ।

बसंतोत्सव की आप सभी को भूरी भूरी शुभकामानाएं ....!!!
|| जय माँ शारदा ||

आर.के.सिन्हा
सांसद , राज्यसभा

Friday 27 January 2017

साधारण से असाधारण बनने तक का सफरनामा


विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान के लिए इस साल 89 हस्तियों को पद्म पुरस्कार के लिए चुना गया है| जिनमें  पद्मविभूषण  पुरस्कार के लिए दिग्गज गायक श्री के.जे. यसुदास , आध्यात्म के क्षेत्र में सद्गुरू जग्गी वसुदेव जी, सार्वजनिक क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता माननीय मुरली मनोहर जोशी जी  ,स्वर्गीय सुंदरलाल पटवा जी, एनसीपी प्रमुख श्री शरद पवार जी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष स्वर्गीय पीए संगमा जी ,विज्ञान एवं इंजीनियरिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए प्रो. उडिपी रामचंद्रराव  को चुना गया ।

इस बार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान के रूप में पद्म पुरस्कार पाने वाले कुछ नाम इतने गुमनाम हैं कि उन्हें जनसामान्य  खोज ही नहीं पा रहा है | प्रसिद्धि के बजाय सरकार की अनूठी और अदभुद पहल ने राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले निष्काम कर्मयोगियों को प्रमुखता दी है। देश और समाज की सेवा में दशकों से लगे इन लोगों के बारे में खासतौर से आमलोगों ने अपनी सिफारिशें भेंजी थी। इस सूची में पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी से लेकर गुजरात के बनासकांठा के एक छोटे से गांव और केरल, त्रिपुरा और मणिपुर जैसे राज्यों के लोग शामिल हैं। उनमें सिल्क की साड़ी बुनने वाली मशीन बनाने वाले, सूखाग्र्रस्त इलाके में अनार की लहलहाती फसल उगाने वाले और एक करोड़ से अधिक पेड़ लगाने वाले, कोलकाता में चार दशकों से मुफ्त में अग्निशमन विभाग में अपनी सेवा देने वाले ,बिहार लोक चित्रकारी को विश्व पटल पर पहुँचाने वाले लोग शामिल है | जिन्हें नाम से अधिक उनके  उपनामों से अधिक पहचान मिली है, जैसे डाक्टर दादी ,वृक्ष पुरूष, एंबुलेंस दादा आदि । वास्तव में ये हस्तियां निष्काम भाव से लोगों की सेवा में इतनी रमी रहीं कि लोग इनके नाम भूलकर इन्हें उपरोक्त उपाधियों से ही जानने लगे।
साधुवाद मोदी सरकार को जिसने हमारे बीच रहने वाली  ऐसी गुमनाम हस्तियों को पद्म पुरस्कार प्रदान कर इसके वास्तविक नाम और काम दोनों को तार्किक रूप प्रदान किया है 
सात साल की उम्र में अखाड़े में उतरकर तलवार थामनेवाली 76 साल की मीनाक्षी अम्मा केरल में युद्ध कला कलारीपयत्तु सीखाती हैं। स्कूल ड्रॉपआउट चिंताकिंडी मल्लेशम ने एक ऐसी मशीन बनाई जिससे परंपरागत पोचमपल्ली साड़ी बुनकरों को पहले के मुकाबले लगने वाला समय और मेहनत एक तिहाई रह गया ।
द ट्री मैन के नाम से मशहूर दरीपल्ली रम्मैया ने देश को हरा भरा बनाने को अपना सपना बना रखा है। उनका मिशन है देश में एक करोड़ पेड़ लगाना। बिपिन गणात्रा एक अग्निरक्षक के नाम से जाने जाते हैं। एक आग दुर्घटना में अपने भाई को गंवाने के बाद बिपिन लगातार एक स्वयंसेवी के तौर पर आग में फंसे लोगों की जानबचाने के लिए अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मरणोपरांत पुरस्कार पाने वाली डॉ सुनीति सोलोमन को एड्स के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए याद किया जाएगा। साल 1985 में उन्होंने पहली बार देश में एड्स का मामला ढूंढा था।
रोड दुर्घटनाओं के शिकार लोगों को तुरत मदद पहुंचाने वाले डॉ सुब्रतो दास को "हाईवे का मसीहा " भी कहा जाता है। उनका लाफलाईन फाउंडेशन करीब 4000 किलोमीटर के राजमार्ग पर अपनी सेवाएं दे रहा है।
डॉ दादी के नाम से मशहूर 91 साल की डॉ भक्ति यादव गायनाकॉलोजिस्ट हैं। वो लगातार पिछले 68 सालों से मुफ्त में महिलाओं का ईलाज कर रही हैं। गिरीश भारद्वाज को सेतु बंधु के नाम से जाना जाता है। पेशे से इंजीनियर गिरीश ने अबतक अपने स्रोतों से सूदूर ईलाकों में 100 से ज्यादा लो कॉस्ट यानी कम कीमतवाले पुल बनवाए हैं।
गेनाभाई दरगाभाई पटेल गुजरात के एक दिव्यांग किसान हैं। सूखेग्रस्त ईलाके को तकनीक के सहारे इन्होंने हरा भरा बनाया। देश के सबसे बड़े अनार उत्पादक किसानों में से एक जेनाभाई को अनार दादा के नाम से भी जाना जाता है। ओडिशा के दूरदराज गांव में जनजातीय परिवार में पैदा होने वाले चंडीगढ़ के किडनी रोग विशेषज्ञ डॉक्टर मुकुट मिंज को को भी  सम्मानित किया गया। तीन दशकों में डॉक्टर मुकुट मिंज 3400 से अधिक किडनी प्रत्यारोपित कर चुके हैं | मधुबनी पेंटिंग को क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर निकालकर अंतरराष्ट्रीय जगत तक पहुंचाने वाली बौआ देवी ,माता भगवती के जागर की असाधारण गायिका बसन्ती विष्ट ,नागपुरी नृत्य को असाधारण पहचान दिलाने वाले मुकुंद नायक आदि को भी सम्मानित सम्मानित किया गया हैं |
जनता के बीच ऐसे खोये हुये महापुरुषों को हमसे रूबरू कराने और उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार देकर सम्मानित करने के लिये भारत सरकार को पुनः धन्यवाद  |
आज रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना “ कंगूरे की ईंट ” सही मायनों में चरितार्थ हुई है -------------------------
दुनिया चकमक देखती है, ऊपर का आवरण देखती है, आवरण के नीचे जो ठोस सत्य है, उसपर कितने लोगों का ध्यान जाता है ?

ठोस 'सत्य' सदा  'शिवम्' होता ही है, किंतु वह हमेशा 'सुंदरम्' भी हो यह आवश्यक नहीं है।

सत्य कठोर होता है, कठोरता और भद्दापन साथ-साथ जन्मा करते हैं, जिया करते हैं।

हम कठोरता से भागते हैं, भद्देपन से मुख मोड़ते हैं - इसीलिए सत्य से भी भागते हैं।

नहीं तो इमारत के गीत हम नींव के गीत से प्रारंभ करते।

किंतु, धन्य है वह ईंट, जो  ज़मीन के सात हाथ नीचे जाकर गड़ गई और इमारत की पहली ईंट बनी!

क्योंकि इसी पहली ईंट पर उसकी मज़बूती और पुख़्तेपन पर सारी इमारत की अस्ति-नास्ति निर्भर करती है।

उस ईंट को हिला दीजिए, कंगूरा बेतहाशा ज़मीन पर आ गिरेगा।

कंगूरे के गीत गानेवाले हम, आइए, अब नींव के गीत गाएँ।

वह ईंट जो ज़मीन में इसलिए गड़ गई कि दुनिया को इमारत मिले, कंगूरा मिले!

वह ईंट जो सब ईंटों से ज़्यादा पक्की थी, जो ऊपर लगी होती तो कंगूरे की शोभा सौ गुनी कर देती!

किंतु जिसने देखा कि इमारत की पायदारी (टिकाऊपन) उसकी नींव पर मुनहसिर (निर्भर) होती है, इसलिए उसने अपने को नींव में अर्पित किया।
पद्मपुरस्कार प्राप्त करने वाली सभी 89 हस्तियों को मेरी ओर से बहुत बहुत बधाईयाँ,शुभकामानाएं और कोटि कोटि अभिनंदन ...!!!!
आप सभी ने अपने अपने क्षेत्र में अपने राष्ट्र का गौरव बढाकर हमें गौरान्वित होने का अवसर प्रदान किया है |
आर.के. सिन्हा
सांसद ,राज्य सभा

Sunday 15 January 2017

मुस्लिम समाज को मिलें और हसीना फारस

हसीना फारस को अच्छी तरह मालूम है, कैसे लड़ा जाए कठमुल्लों से। उनका महाराष्ट्र के प्रमुख शहर कोल्हापुर का मेयर बनना उन घोर प्रतिक्रियावादी मौलवियों और कठमुल्लों के मुंह पर करारा तमाचा है, जो औरतों को समाज में बराबारी के अधिकार देने-दिलवाने का विरोध करते रहते हैं। आज हसीना सारे देश की मुसलमान औरतें के लिए प्रेरणा की स्रोत बनकर उभरी हैं। दरअसल कोल्हापुर के कठमुल्ला हसीना और कुछ दूसरी मुसलमान औरतें के नगर निगम चुनाव लड़ने का  विरोध कर रहे थे। इनका लचर तर्क था कि उनका चुनाव  मैदान में आना इस्लाम सम्मत नहीं है। पता नहीं कहां से उन्होंने किसी महिला के चुनाव लड़ने को इस्लाम के मजहब से जोड़ दिया। इसके बावजूद हसीना चुनाव लड़ीं और भी विजयी रहीं।

मौलवियों ने फतवा भी सुना दिया था। इसके बावजूद 19 मुसलमान औरतें चुनाव मैदान में उतरीं। पांच को कामयाबी भी मिली। इनका चुनाव लड़ना और जीतना कहीं न कहीं इस बात को मजबूती देता है कि अब मुसलमान महिलाएं अंधकार के युग में रहने वाले मुल्ला-मौलवियों के फतवों को खारिज करने लगी  हैं। अब वे देश की मुख्यधारा का अंग बनने को तत्पर हैं।
संकीर्णता का सामना
सीना फारस कट्टरता व संकीणर्ता का सामना करते हुए मेयर चुनी गयीं। हालांकि उन्हें पर्दे के पीछे जिंदगी जीने के लिए धकेला जा रहा था। उन्हें ये सब कुछ नामंजूर था। अब हसीना से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वे देश भर की मुसलमान औरतों को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के लिए आगे आएंगी। उनकी असली लड़ाई तो अब शुरू हुई है। ट्रिपल तलाक और हलाला जैसे गंभीर मसलों से देश की करोड़ों मुसलमान औरतों का जीना कठिन होता जा रहा हैं। इन असहाय औरतों को रास्ता दिखाना होगा मुक्ति का, हसीना फारस सरीखी औरतों को। इस लिहाज से हसीना जैसी औरतों पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।
बदलाव से भय
हसीना फारस भी मानती है कि जमाना बदल रहा है, जिससे मुस्लिम महिलाएं दूर नहीं रह सकतीं। एक बड़ी दिक्कत ये हो रही कि मुस्लिम समाज अपने को बदलने के लिए कतई तैयार नहीं है। वहां पर बहस के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं मिलता। कोई बदलाव के मार्ग पर चलने की चेष्टा करता है, तो उसकी टांग खींच ली जाती है या तोड़ दी जाती है।
इस पृष्ठभूमि में हसीना फारस की उपलब्धि महत्वपूर्ण है। अब तो यह सारी दुनिया के सामने जाहिर हो चुका है कि ट्रिपल तलाक मामले में मुस्लिम समाज के तालिबानी मानसिकता वाले तत्व कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। वे ही पूरे मुस्लिम समाज पर हावी हैं। मुस्लिम औरतों की जिंदगी में मानो उम्मीद की किरण देखना ही नहीं चाहते। उनके खौफ से कोई बोलता तक नहीं। इनकी ख्वाहिश है कि मुसलमान औरतें अपने सीलनभरे घरों में ही दफन हो जाएं। बेशक वक्त का यह तकाजा है कि तरक्कीपसंद मुसलमान अब हसीना फारस जैसी औरतों का खुलकर साथ दें और अपने हकों के लिए सड़कों पर उतरें। इन्हें अपने समाज की  प्रतिगामी ताकतों को धूल में मिलाना ही होगा। चुनौती कठिन है, पर नामुमिकन नहीं है। यह भी बात नहीं है कि मुस्लिम समाज में अपने हकों के लिए लड़ने वाली औरतों की भारी कमी है। अब  लेखिका नूर जहीर का ही उदाहरण लें। तीन तलाक और हलाला पर नूर जहीर लगातार कट्टरपंथी मुसलमानों से दो-दो हाथ कर रही हैं। उन्हें अपने तर्कों से पानी पिला रही हैं। इस सारी बहस में नूर जहीर ने एक नया आयाम जोड़ा है। वे मांग कर रही हैं कि मुसलमान औरतों को भी उतनी ही आसानी से तलाक देने का अधिकार मिले।
जितनी आसानी से मर्द को मिलता है। औरत भी तीन बार तलाक कह सके और जब चाहे मर्द का पल्ला छोड़ सके। उसकी मर्जी से उसका भी तलाक हो जाए। क्योंकि, औरत भी अगर तलाक मांगती है, तो अंतत: देता मर्द ही है। अगर वह नहीं चाहे तो औरत को उसकी मर्जी मनानी पड़ती है। इस सारी प्रक्रिया में औरत को लंबी कवायद से भी गुजरना होता है। उसे कभी-कभी अपने ही बच्चों से मिलने का अधिकार तक छोड़ना पड़ता है या मेहर की रकम छोड़नी पड़ती है। इस तरह कुछ चीजें छोड़कर ही महिला को तलाक मिलता है। यानी महिला सब कुछ दे दे, तब भी तलाक-तलाक-तलाक की घोषणा मर्द ही करता है।
बहे बदलाव की बयार
बेशक, अन्य समाजों की तुलना में मुस्लिम औरतें आर्थिक रूप से कहीं कम स्वावलंबी है। ये आर्थिक रूप से पूरी तरह पुरुषों पर ही आश्रित है। शायद इसी वजह से अंधेरे और घुटन में सांसें ले रही हैं। तालीम की रोशनी भी  मुसलमान लड़कियों को सही तरह से नहीं मिल पाती।अगर किसी समाज की हालत और प्रगति के बारे में जानना हो तो यह देखें की उस समाज में औरतें किस स्थिति में हैं।जो जंग तलवार, बन्दूक तथा तोप नहीं जीत सकते वो जंग आप तालीम से जीत सकते हैं।
भारत  की कुल आबादी में लगभग 18 करोड़ मुस्लिम हैं। जाहिर है,  इनमें औरतें आधी हैं। ये शिक्षा, आर्थिक स्तर से लेकर सामाजिक और पारिवारिक तथा स्वावलम्बन के मामले में बदतर हालत में हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत की लगभग 60 फीसदी मुस्लिम महिलाएं शिक्षा से वंचित हैं, इनमें से मात्र 10 फीसदी महिलाएं ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं, जबकि शेष 30 फीसदी महिलाएं दसवीं कक्षा तक अथवा उससे भी कम तक की शिक्षा पाकर घर की बहू बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं। शिक्षा की तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है। सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ हिंदू महिलाओं (46.1 फ़ीसदी) के मुक़ाबले केवल 25.2 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोज़गार के क्षेत्र में हैं, अधिकांश यानि लगभग 75 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने शौहरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर एक भी पैसा ख़र्च करने के काबिल नहीं हैं।
यह सभी आंकड़े न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि बहुत ही डरावने हैं, और मुस्लिम समाज के लिए एक चेतावनी भी हैं। कोई माने या न माने पर ये सच है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं। मुल्ला मौलवियों द्वारा इसकी मन मर्ज़ी से व्याख्या करने से भी इनकी दुर्दशा  है, जिसमें पर्दा जैसी रुकावट और कई ऐसी ही कुछ रूढ़िवादी समाजी सोच भी है। अब भी बड़ी तादाद में मुसलमान परिवारों में लड़कियों को क्यों पढ़ाएं वाली मानसिकता हैससुराल में जाकर चूल्हा-चौका ही तो संभालना है? और, यह कि लड़की अगर ज़्यादा पढ़ लिख जाएगी तो शादी के लिए रिश्ते नहीं आएंगे इस सोच के चलते कई बार लड़कियां खुद तालीम हासिल करने से पीछे हट जाती हैं या हटा दी जाती हैं।
इन तमाम अवरोधों के बावजूद इसी भारत में अनेक मुस्लिम महिलाओं ने अत्यंत ही सराहनीय काम किए हैं। रज़िया सुल्तान भारत की पहली मुस्लिम महिला शासक थीं। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने हिंदू-मुस्लिम एकता को मज़बूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए थे। और अब हमारे समाने हसीना फारस हैं। फिर आज क्यों उसी मुस्लिम समाज में औरत की यह बदतर हालात हैं?
भारत के मुस्लिम परिवारों में औरत की हैसियत को जानने के लिए अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास  'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' पढ़ लेना जरूरी है। इसमें  उपन्यासकार ने मेहनतकश मुसलमान परिवारों का चित्रण खींचा है, जहां नारी  दूसरे या कहें कि तीसरे दर्जे के इंसान के रूप में रहती है। इसमें एक जगह लेखक एक पात्र से कहलवाता है, ‘औरत की आखिर हैसियत ही क्या है? औरत का इस्तेमाल ही क्या है चूल्हा-हांड़ी करे, साथ में सोये, बच्चे जने और पाँव दबाये। इनमें से किसी काम में कोई गड़बड़ की, तो बोल देंगे तलाक, तलाक, तलाक।
पर तमाम निराशा और कठिनाइयों के बावजूद यह भी लगता है कि हालात सुधरेंगे। मुसलमान औरतें अपने हकों के लिए घरों से बाहर निकलेंगी। आखिर, उनके सामने हसीना फारस जैसी कर्मठ और जुझारू महिलाओं के उदाहरण जो हैं |

आर.के.सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सांसद एवं हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषीय समाचार सेवा के अध्यक्ष हैं)

Let Muslim Society Get More Hasina Faras

Haseena Faras knows how to fight the rabid communalists in Islam- the reactionary and conservative ‘Maulavis’. Her election as Mayor of Kolhapur in Maharashtra is a big slap at the face of reactionary and conservative Maualvis who have been all through opposing equal rights to Muslim women in the society. Now Haseena has emerged as a source of inspiration for Muslim women.

In fact, Maulanas and Maulvis along with some conservative women were opposing Haseena for contesting the local body elections in Kolhapur. Their argument was women entering the election arena was against the tenets of Islam. I wonder if the so called ‘thekedars’ of Islam forget that Benazir Bhutto, a woman was Prime Minister of Pakistan and Sheikh Hasina is currently Prime Minister of Bangladesh.

The Maulavis had issued ‘fatwa’ barring women from contesting civic body polls in Kolhapur. Despite that 19 Muslim women entered the fray and five of them won the elections. This is broad indication that women in Muslim society are no longer ready to live in the dark age of religious sanctions.
Haseena Faras refused to live behind the veil of religion by rejecting the fatwa of Maulvis. But her real fight begins now. She has to bring in more and more women of her society to mainstream of social life. She has to encourage women to become equal partner in life with men and fight for their fundamental rights to which they are entitled to as per our Constitutional provisions.


Life is becoming increasingly difficult for Muslim women under the practice of triple talaq and practice of ‘halal’. She is fully aware and knows it well that in changing world where social reforms are taking place, women cannot lag behind the changes in the society for the better. The problem is the Muslim society appears to be not ready to reform and change. In Muslim society in India, there is no scope for debate and discourse. Anyone trying to advance the point of reforms in the society is ridiculed by the religious leaders of Islam. His leg is pulled or even broken for talking reforms in the society of Muslims. It is increasing becoming clear now that the Talibani advocates of triple talaq in Islam are not prepared to listen any argument against the practice of talaq in the Muslim society. Nobody dares to raise voice against the illegal social practices in the Muslim society for fear of reprisal by the hardcore Muslims. Such conservative Muslims on the other hand want that their women folk should remain where they are and should live, die and buried within the confines of four walls of their homes.

It is high time that moderate and modern Men in the Muslim society who want to go with the progress and development should come out on streets and support whole heartedly women like Haseena Faras. Women in Muslim society are far less independent socially and economically compared to rest of women in the country.   They are totally dependent on men. Perhaps it is because of this that they live in suffocated atmosphere. They are less educated. Wars that cannot be won with canons and swords can be won by learning and education. According official statistics, more than 60% Muslim women are deprived of any education and only 10% women are lucky to get higher education.

A novel by Abdul Bismillah titled “ Jhini Jhini Bini Chunaria” gives better insight to the plight of Muslim women in North India. The writer has described the condition of wage earning Muslim family where women are second and third rate members of the family. A woman character in the novel says, “what is the role of a woman, cook food, sleep on bed with husband, give birth to children and serve the man as bonded labourer. If you fail in your duty or in the estimation of your husband then face..talaq talaq talaq”.  A Muslim friend of mine says even “Allah does not like talaq”.

(The writer is Member of Rajya Sabha and Chairman Hindusthan Samachar)

Sunday 8 January 2017

भारतवंशियों के साथ कितना खड़ा है भारत


आपको याद होगा कि तीन-चार दशक पहले तक भारत से बाहर जाकर बसे भारतीयों को हेय भाव से समाज देखता था हमारा समाज। कहा जाता था कि देश के संसाधनों का उपयोग करके देश को छोड़ना अनुचित ही नहीं मिट्टी के साथ विश्वासघात है।
लेकिन अब वह मानसिकता नहीं रही। अब तो भारत से बाहर जाकर बसे भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों (एनआरआई) को देश के ब्रांड एंबेसेडर के रूप में ही देखा जाने लगा है। सरकार के स्तर पर भी सोच बदली है। इसी पृष्ठभूमि में आगामी 7 से 9 जनवरी के बीच बैंगलुरू में 14 वां प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) का आयोजन हो रहा है। इसमें सारी दुनिया में लगभग 150 देशों में बसे हजारों सफल भारतवंशी भाग लेंगे।

दरअसल देश में नरेन्द्र मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद विदेश नीति के केन्द्र में आ गए हैं विदेशों में बसे भारतीय। मोदी सिडनी से लेकर न्यूयार्क और नैरोबी से लेकर दुबई जिधर भी गए वे वहां पर रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से गर्मजोशी से मिले। बड़ी-बड़ी सभाएं कर उन्हें संबोधित किया। उनके मसलों को उन देशों की सरकारों के सामने रखा-उठाया। अभी तक  होता यही था जब भारत से राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने विदेशी दौरों पर जाते थे तो उन देशों में स्थित भारतीय दूतावास कुछ खास भारतीयों को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से चाय पर मिलवा देते थे। कुल मिलाकर एक रस्मी आयोजना होता था। वह भी हर बार नहीं। समय मिलने पर। मोदी जी ने तो एक एसी परम्परा की नीवं डाल दी है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तो छोड़िए, लगभग हर केन्द्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक के कार्यक्रम का एक बड़ा आयोजन होता है भारतवंशियों के बीच जाना। 
वैसे भारतवंशियों से कोई रिश्ता न रखने की यह नीति पंडित जवाहरलाल नेहरु के दौर से ही चल रही थी। नेहरु जी ने संसद में 1957 में यहाँ तक कह दिया था कि  देश से बाहर जाकर बसे भारतीयों का हमारे से कोई संबंध नहीं है। वे जिन देशों में जाकर बसे हैं, उनके प्रति ही अपनी निष्ठा दिखाएं। यानि कि उन्होंने विदेशों में उड़ते अपने पतंग की डोर ही काट दी थी। उनके इस बडबोलेपन से विपक्ष ही नहीं तमाम राष्ट्रवादी कांग्रेसी भी आहत हुए थे। उन्हें ये सब कहने की आवश्यकता नहीं थी। जो भारतीय किसी अन्य देश में बस भी गया है, तब भी वह भावनात्मक स्तर पर तो भारतीय ही रहता है जिंदगीभर। भारत सरकार भी चाहती है कि भारत को लेकर निष्ठा बनी रहे। नेहरु के विपरीत मोदी मानते हैं कि भारत से बाहर बसे ढाई करोड़ से अधिक भारतीय भारत के ब्रांड एंबेसडर के रूप में काम करें। इनकी उपलब्धियों से भारत का नाम रोशन होता है।
अब साथ मिलता सरकार का
अब मोदी सरकार प्रो-एक्टिव होने लगी है, जब किसी देश में भी भारतीय संकट में फंसे। यह मोदी सरकार के ढाई वर्षों में देखने को मिला। यह सब पहले नहीं होता था । हालांकि, हम कथित तौर पर निर्गुट आंदोलन के मुखिया थे। महत्वपूर्ण है कि देश से बाहर गए और बसे भारतीयों में कोका कोला की सीईओ इंदिरा नूई, ब्रिटेन के लार्ड स्वराज पाल, लार्ड करन बिलमोरिया, मास्टर कार्ड के ग्लोबल हेड अजय बंगा जैसे खासमखास और प्रख्यात लोग  कम हैं। देखा जाए तो 1970 के पूर्व बहार गए अधिकतर तो मेहनतकश कुशल और अकुशल मजदूर ही हैं। खाड़ी के देशों में लाखों भारतीय मजदूर काम कर रहे हैं। इनके बहुत से प्रतिनिधि पीबीडी में मिलेंगे। लेकिन, 1970 के बाद बड़ी भरी संख्या में भारतीय डाक्टर और इंजिनियर, विशेषकर साफ्टवेयर एक्सपर्ट विदेश पहुंचे और उन्होंने विदेशों में भारत की छवि बदली। 
अच्छी बात ये है कि भारत सरकार अब इनके सुख-दुख का ख्याल रखने लगी है। मोदी सरकार के कठिन किन्तु दृढ़ प्रयासों के चलते साल 2015 में यमन में फंसे हजारों भारतीय सुरक्षित स्वदेश लौटे पाए थे। भारतीयों के निकालने के लिए नेवी और एयरफोर्स ने ऑपरेशन राहत चलाया था। भारत के सफल राहत अभियान को देखते हुए अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी समेत 26 देशों ने अपने नागरिकों को यमन से निकालने के लिए भारत की मदद मांगी थी। तब विदेश राज्यमंत्री जनरल वीके सिंह ऑपरेशन राहत की शुरुआत से यमन में स्वयं मौजूद रहे और खुद राहत के काम की व्यक्तिगत रूप से देखरेख की। दरअसल, विदेशों में काम करने वाले भारतीय मजदूरों का मसला बड़ा गंभीर और जटिल है।
खाड़ी देशों में भारतीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यूएई और सऊदी अरब की बीते महीनों के दौरान यात्रा पर गए थे। उधर उन्होंने वहां के नेताओं से भारतीय श्रमिकों से जुड़े मसलों के संबंध में भी बात की। उसका तत्काल लाभ हुआ। इसी तरह से इस साल के गणतंत्र दिवस समारोह में  अबूधाबी के  शेख मोहम्मद बिन जायेद अल नाहयान  मुख्य अतिथि होंगे। जाहिर है कि उनके भारत दौरे के समय दोनों देशों के आपसी संबंधों के अतिरिक्त यूएई में काम करने वाले भारतीय मजदूरों के हितों पर फिर से  विस्तार से चर्चा होगी। यूएई और बाकी खाड़ी देशों में लाखों भारतीय कुशल-अकुशल श्रमिक काम कर रहे हैं विनिर्माण परियोजनाएं से लेकर दूकानों वगैरह में। निर्विवाद रूप से मोदी की यूएई यात्रा से भारतीय मजदूरों की खराब हालत में सुधार शुरू हुआ।  ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि खाड़ी देशों में बंधुआ मजदूरों की हालत में भारतीय श्रमिक काम करते रहे हैं। आप रियाद,दुबई या अबूधाबी एयरपोर्ट पर जैसे ही उतरते हैं तो आपको चारों तरफ भारतीय ही मिलते हैं। इन्हें अरब देशों में कामकाज करवाने के लिए लाया तो जाता है पर इन्हें वहां पर न्यूनतम वेतन, मेडिकल और इंश्योरेंस जैसी  सुविधाएं नहीं मिल पाती।
क्या होता था तब
मैं पूर्ववर्ती सरकारों की विदेशों में काम करने वाले भारतीयों के हितों को लेकर रही कमजोर नीति की निंदा करना नहीं चाहता। लेकिन, एक उदाहरण देने की इच्छा हो रही है। यूपीए सरकार के दौर में विदेश राज्य मंत्री ई.अहमद से खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीय श्रमिकों के शोषण के संबंध में संसद में एक बार सवाल पूछा गया। केरल से मुस्लिम लीग की टिकट पर संसद पहुंचने वाले ई.अहमद ने बताया, “अनुमान है कि लगभग 6 मिलियन भारतीय खाड़ी क्षेत्र में रहते हैं एवं वहां पर कार्य करते हैं। भारत सरकार को खाड़ी देशों में भारतीय कामगारों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं से संबंधित शिकायतें नियमित रूप से प्राप्त होती हैं। भारत सरकार ने खाड़ी देशों में अपने मिशनों के माध्यम से भारतीय कामगारों के अधिकारों की रक्षा करने एवं कामगारों के शोषण संबंधी समस्याओं का निराकरण करने हेतु कई उपाय एवं पहल किए हैं। जब भी शिकायतें प्राप्त होती है, तो शिकायतों का सौहार्दपूर्ण हल निकालने पर सहमति बनाने की दृष्टि से मिशन द्वारा प्राथमिकता आधार पर संबंधित नियोक्ताओं और अथवा स्थानीय प्राधिकारियों के साथ इस मुद्दे को उठाया जाता है।आप मंत्री जी के इस उत्तर को सुनकर समझ गए होंगे कि पहले की सरकारों का प्रवासी भारतीयों  के हितों को लेकर किस तरह का रुख रहा  करता था।
मुझे वे दौर भी याद हैं जब ईस्ट अफ्रीकी देश युगांडा से हजारों भारतवंशियों को वहां के नरभक्षी राष्ट्रपति ईदी अमीन ने सारी संपत्ति हड़पकर खदेड़ दिया था। हालांकि, अनेकों दशकों से युगांडा में बसे भारतीय मूल के लोग वहां की अर्थव्यवस्था की प्राण और आत्मा थे। तब भी हमारी सरकार ने अपने प्रभाव का कतई इस्तेमाल नहीं किया था, ताकि भारतीयों के हकों की रक्षा हो सके। युगांडा और केन्या में  भारतवंशी लुटते-पिटते रहे, पर हम देखते रहे। उन्हें कनाडा और ब्रिटेन अमरीका और नीदरलैंड में शरण मिली पर हमारी कांग्रेसी सरकारें हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे। यही हाल फीजी में हुआ जब भारतवंशियों की निर्वाचित सरकार को बंदूक के बल पर पलट दिया गया और हमारी कांगेस सरकार की कानों पर जू भी नहीं रेंगा।
 इस सन्दर्भ में मैं भारतवंशियों के बीच भारत के अवैतनिक राजदूतके रूप में मशहूर स्वर्गीय बालेश्वर प्रसाद अग्रवाल की चर्चा किये बगैर नहीं रह सकता। बालेश्वर जी ने बी.एच.यू. से मैकेनिकल इंजीनियर की पढाई की और भाषाई  पत्रकारिता का पेशा अपनाया। 1956 से 1982 तक प्रथम पूर्णतः भारतीय समाचार एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार के प्रधान संपादक और महाप्रबंधक रहे। अंतर्राष्ट्रीय विषयों, विशेषकर विदेशों में रहनेवाले भारतवंशियों में गहरी रुचि के कारण १९८२ में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद्की स्थापना की। पूरे विश्व में जहाँ-कहीं भी भारतवंशी बसते है, वहां प्रतिनिधिमंडल लेकर गए। राष्ट्राध्यक्षों से मिले। भारतवंशियों की समस्याओं पर गहन चर्चाएँ हुई। समाधान भी निकलने शुरू हुए। मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद और गुयाना में भारतवंशी राष्ट्राध्यक्ष बने। इसमें भी बालेश्वर जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। मारीशस के प्रथम प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने ही बालेश्वर जी को भारतवंशियों के अवैतनिक राजदूतकी उपाधि दी थी। बालेश्वर जी की पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी से गहरे संबंधों का ही परिणाम है कि अलग से प्रवासी भारतीय मंत्रालय बना और प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की दिशा में पहल की गई। एक अकेला गैर सरकारी व्यक्ति यदि समर्पित होकर मेहनत से लगा रहे तो वह किस प्रकार सरकार की निति को प्रभावित कर सकता है इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे स्वर्गीय बालेश्वर जी।             
मैं बीते कई वर्षों से पीबीडी में मलेशिया की टोली के सदस्यों से मिल रहा हूं। मलेशिया में करीब तीस लाख भारतीवंशी हैं। ये अधिकतर तमिलनाडू से हैं। आप इनसे बात करें तो पता चलता है कि किस तरह से इनका मलेशिया में शोषण हो रहा है।धर्म के नाम पर हिन्दू और ईसाई श्रमिकों से होने वाले भेदभाव अलग से।   मुझे यकीन है कि इस बार भी मलेशिया से भी बड़ा जत्था आएगा। सरकार को मलेशिया में बसे भारतीयों के पक्ष में अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
  दरअसल बीते कुछेक सालों से राज्य सरकारें भी अपने प्रदेशों के प्रवासी सम्मेलन करवा रही हैं। ये भी अच्छी पहल है। हाल के सालों में आंध्र प्रदेश के हजारों पेशेवर अमेरिका में जाकर बस गए हैं। इनका सिलिकॉन वैली में दबदबा है। इसी तरह से गुजरात, पंजाब और बिहार सरकारें भी क्षेत्रिय प्रवासी सम्मेलन करवा रही हैं। केन्द्र सरकार भी पीबीडी को दिल्ली से बाहर ले गई है। पहले कई सालों तक पीबीडी दिल्ली में ही आयोजित होता था। अब ये चेन्नई, गांधीनगर और  बेगलुरू में हो रहा है। यानी मोदी सरकार सरकार खासी सक्रिय है पीबीडी के परिणामों को लेकर।हमें किसी भी सूरत में भारत से बाहर बस गए अपने भाई-बंधुओं के हितों को देखते रहना होगा। भारत एक महाशक्ति बन चुका है। इसलिए भारत से बाहर जाकर बसे भारतीयों के हित सुरक्षित रहने चाहिएं। 

आर.के सिन्हा 

 (लेखक राज्य सभा सांसद हैं और हिन्दुस्थान समाचार संवाद समिति के अध्यक्ष हैं)